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योग से आरोग्य तक

सुनील सिंह

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :126
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5720
आईएसबीएन :81-288-1723-X

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आज सारा विश्व योगमय होता जा रहा है। योग हो या फिर भोग। रोग दोनों में ही बाधक है। इन दोनों क्रियाओं को करने और उनका पूर्ण आनंद लेने के लिए शरीर का रोगमुक्त और स्वस्थ होना आवश्यक है।

Yog Se Aarogya Tak

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आज सारा विश्व योगमय होता जा रहा है। योग हो या फिर भोग। रोग दोनों में ही बाधक है। इन दोनों क्रियाओं को करने और उनका पूर्ण आनंद लेने के लिए शरीर का रोगमुक्त और स्वस्थ होना आवश्यक है। यह पुस्तक अलग-अलग बीमारियों और कुछ ऐसे विषय जिनका योग की पुस्तकों में विवरण नहीं मिलेगा उनको समझने का लाभपूर्ण प्रयास कर रही है। इस पुस्तक में योग को समझाने के प्रयास तथा किस-किस बीमारियों में योग का क्या प्रभाव पड़ता है पर भी प्रकाश डाला गया है।

सन्दर्भ


‘‘योग से आरोग्य तक’’ यह पुस्तक मेरे लिए काफी अहम् एवम् अमूल्य है, अगर मैं इसे अपनी पूंजी कहूँ तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। इसमें मैंने योग को समर्पित अपने जीवन के अनुभवों को पाठकों के समक्ष रखने का प्रयास किया है कि किस तरह व्यक्ति अपनी दिनचर्या में सब कुछ समय योगाभ्यास के लिए निकाल कर आजीवन निरोग, खुशहाल एवम् आनन्दमय जीवन व्यतीत कर सकते हैं।

मैं सुनील सिंह स्वयं को आज भी एक अभ्यासी के तौर पर देखता हूँ, जैसे अंग्रेजी में कहा जाता है ‘‘नो-बडी इज परफेक्ट, ऐवरीडे यू लर्न न्यू थिंग्स’, ‘यानी‘‘ कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में पूर्ण नहीं है, वह नित-प्रतिदिन नई चीजें सीखता है’’, इसी तरह मैं खुद को पूर्णतयाः अभ्यस्त नहीं मानता। मैंने योग को बतौर जीवन-शैली के रूप में लिया है और इसी जीवन शैली के अनुभवों को विभिन्न माध्यमों से समय-समय पर जनमानस के समक्ष बाँटता रहा हूँ, जिससे अधिक से अधिक लो बेहद दुष्कर बीमारियों व रोगों से दूर रहकर निरोग, स्वस्थ और खुशहाल जीवन व्यतीत कर सकें।

हालांकि इस पुस्तक में मैंने योग, आसन, जापानी तकनीक और प्राणायाम द्वारा शरीर को स्वस्थ रखने की विभिन्न विद्याओं का समावेश किया है। लेकिन इस पुस्तक को जनमानस के समक्ष लाने में प्रत्यक्ष एवम् अप्रत्यक्ष रूप से आदरणीय रमेश चन्द्र खन्तवाल, हरीश शर्मा, अनिल कौल, दीपक गुप्ता, डैनी सिंह, यतिन्द्र शर्मा, मुकुल कुमार, सुमन प्रसाद, ऋतु राज, भूपेश गुप्ता, उमेश वर्मा, गौतम और शैलेष मेवटिया का भी अहम् सहयोग रहा।
शायद इन सभी व्यक्तियों के सहयोग बिना मैं अपने अनुभवों को इस पुस्तक के माध्यम से आप सभी व्यक्तियों के समक्ष ला पाने में असमर्थ रहता। मेरे साथ-साथ उनकी मेहनत, कर्तव्यनिष्ठा और सहयोग भी इस पुस्तक का अभिन्न अंग है।

योग गुरु सुनील सिंह

भूमिका


हमारा वैदिक साहित्य परविज्ञान का मुख्य स्त्रोत है। यद्यपि योग पर बहुत अत्यधिक पुस्तकें और ग्रन्थ समय-समय पर लिखे गए और सभी का मूलभूत उद्देश्य था उत्तम स्वास्थ्य और स्वस्थ समाज। योग शब्द संस्कृत के युंज धातु से बना है जिसका अर्थ मिलाना-जोड़ना, संयुक्त करना या ध्यान केन्द्रित करना है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा, ‘‘समंत्व योग उच्यतो’’ अर्थात् ‘‘सुख-दुख में सम रहना योग है’’। योग से धर्म की रक्षा, योग से ही विद्या सम्भव है, बिना ज्ञान मोक्ष कपोल कल्पना मात्र ही है।

आज सारा विश्व योगमय होता जा रहा है। योग हो या फिर भोग ! रोग दोनों ही बाधक है। दोनों ही क्रियाओं को करने और उनका पूर्ण आनन्द लेने के लिए शरीर का रोगमुक्त और स्वस्थ होना आवश्यक है। अष्टांग योग के एक अभ्यार्थी के नाते मैंने अपने जीवन के अनुभव के आधार पर जनसाधारण की रुचि और उद्देश्च का सम्मान करते हुए पुस्तक में अलग-अलग बीमारियों और कुछ ऐसे विषय, जिनका अभी तक योग की पुस्तकों में विवरण नहीं दिया गया है उनको समझने का प्रयास किया है। अपने पूज्यनीय गुरु स्वामी धीरेन्द्र ब्रह्मचारी जी से अर्जित ज्ञान, मार्ग-दर्शन तथा परमपिता परमेश्वर की कृपा से इस पुस्तक में रोग को समझाने का प्रयास तथा किस-किस बामारियों में योग का क्या प्रभान पड़ता है पर भी प्रकाश डाला है।
प्रस्तुत पुस्तक में लेखक का उद्देशय सर्वांगीण स्वास्थ्य के लिए ‘‘योग का अनुसरण कैसे किया जाए’’ है।

योग गुरु सुनील सिंह


योग में भी सावधानी हटी दुर्घटना घटी



योग पर चर्चा चलते ही सहज ही स्वामियों और योग गुरुओं के नाम दिमाग में घूम जाते हैं। योग और योगी भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग हैं। बेशक आज समूचा भारत ‘योगमय और सम्पूर्ण विश्व योगमय होता जा रहा हो’’ परन्तु वहीं दूसरी ओर हम मेडिकल विज्ञान के महत्त्व को झुठला नहीं सकते क्योंकि मेडिकल विज्ञान मानव और प्रकृति के बीच समन्वय स्थापित करने के लिये निरन्तर नई-नई खोज कर रहा है और नये-नये निष्कर्षों पर पहुँच रहा है। भारतीय योग शास्त्रों में निहित है कि योग वह विद्या है जिससे मनुष्य का मानसिक व शारीरिक विकास होता है।

आज का मेडिकल विज्ञान, रोग कारण भिन्न-भिन्न कीटाणुओं को मानता है, रोग का दूसरा बड़ा कारण इस आधुनिक युग में मानसिक तनाव भी है। क्योंकि शरीर के अन्दर अंगों का पूरा नियंत्रण नाड़ी संस्थान द्वारा मस्तिष्क से होता है जैसे आपके हृदय का धड़कना, पाचन रसों का बनना, ग्रंथियों का रासायनिक कार्य करना, श्वास-प्रश्वास यंत्र का कार्य करना, त्वचा तथा गुर्दों द्वारा रक्त शुद्धि करना आदि। मानसिक तनाव के कारण शरीर के यह सभी कार्य अपनी क्षमता से नहीं हो पाते। परिणामस्वरूप शरीर में विकार रह जाता है और शरीर रोगी हो जाता है।

यूं तो हमारे रोग गुरु इस कथन को हमसे अच्छा जानते थे कि शरीर तो नश्वर है, मिट्टी से बना है और मिट्टी में ही मिल जाना है। लेकिन चाहे वह योग हो या फिर भोग ! रोग दोनों में बाधक है। उदाहरण के तौर पर यदि व्यक्ति पेट दर्द की पीड़ा से परेशान है तो उसके लिए 56 प्रकार के भोग और स्वादिष्ट व्यंजन व्यर्थ हैं।

आजकल विदेशियों और स्वदेशियों की योग में बढ़ती रुचि को देखकर निभिन्न प्रकार के अन्य योग भी प्रचलित हो रहे हैं, जिनमें ‘‘प्राणायम’’ विशेष रूप से ‘‘अनुलोम विलोम’’ और ‘‘कपाल भाति’’ प्राणायाम लोगों को आकर्षित कर रहे हैं।

भारतीय समाज के किसी भी दर्शन में योग के नौ योगों का वर्णन किया गया है। सहजयोग, मंत्रयोग, राजयोग, हठयोग, लययोग, ध्यानयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग और नोधा भक्ति। योग के अभ्यासी होने के कारण मैं यह जानता हूँ कि यह विद्या सदा अभ्यास से सिद्ध होती है और मैं अभी अतना अभ्यस्त नहीं हूँ कि सीना ठोंक कर स्वयं को सम्पूर्ण ‘‘योग विद्’’ कह सकूँ।
यहाँ पर मैं कुछ योग के विघ्नों के विषय में भी आपको अवगत कराना चाहता हूँ। योग के अभ्यासी यदि इन विषयों पर ध्यान देंगे तो योग का ज्यादा लाभ उठा पायेंगे।

1. अत्याहार :

यानि अत्याधिक भोजन करना। यदि साधक मिताहार न करके अत्याहार करता है जिसके फलस्वरूप निद्रा, तन्द्रा, आलस्य और प्रमाद से घिर जाता है जो कि साधना में बाधक है।

2. अतिप्रयास :

अतिप्रयास का तात्पर्य क्षमता से कहीं अत्यधिक प्रयास करने से लिया गया है। जब साधक शक्ति से कहीं भी अत्यधिक प्रयास करता है तो वह रोग युक्त हो जाता है।

3. प्रजल्य :

प्रजल्य का तात्पर्य यहां पर व्यर्थ विवाद से लिया गया है। साधक का असत्य भाषण करना अथवा व्यर्थ विवाद में रहना कहलाता है प्रजल्य।

4. अतिनियम ग्रह :

ऐस नियम जो आडम्बर के प्रति प्रेरित करे तथा साधना में रुकावट उत्पन्न करे। उदाहरण स्वरूप शीत में शीतलजल को पीना तथा ठंडे पानी से स्नान करना, अधिक अभ्यास करना और अति उपवास रखना आदि अतिनियम ग्रह कहलाता है।

5. जनसंग :

जनसंग का अभिप्राय जनसम्पर्क से लिया गया है। जब साधक जनसम्पर्क या जनसमूह के बीच आधा समय देता है या उससे सम्बन्ध रखता है जिसके परिणाम स्वरूप राग, द्वेष उत्पन्न होता है और साधक साधना नहीं कर पाता है।


6. चंचलता :

‘‘मनोयत्रा लिपते प्राणो तत्रा विलीयते’’ जहाँ मन लीन हो जाता है, वहीं प्राण लीन हो जाता है। जिसका मन चंचल रहता है उसकी इन्द्रियां उसके वश में नहीं रहती हैं। अतः चंचलता योग साधना में परम बाधक है।

अष्टांग योग में आसन और प्राणायाम मात्र दो अंग है इस बात को भली प्रकार समझ लेना चाहिए। इनका अपना विशिष्ट महत्त्व है, किन्तु यह योग के पर्याय नहीं हैं यह योग को सिद्ध करने की दिशा में क्रम-बद्ध कदम या योग का एक पायदान भर है जिसका सम्बन्ध केवल शरीर शक्ति के जागरण से है। विज्ञान सृजनात्मक और विनाशक आविष्कार करते हुए अणु बम, परमाणु बम और जैविक बम बना रहा है वहीं दूसरी ओर रोगों को दूर करने वाली दवायें बना रहा है खेती में पैदावार बढ़ाने के तरीके ढ़ूँढ़ रहा है, अपाहिजों के काम आने वाला कृतिम अंग बना रहा है।


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